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तु॒जे न॒स्तने॒ पर्व॑ताः सन्तु॒ स्वैत॑वो॒ ये वस॑वो॒ न वी॒राः। प॒नि॒त आ॒प्त्यो य॑ज॒तः सदा॑ नो॒ वर्धा॑न्नः॒ शंसं॒ नर्यो॑ अ॒भिष्टौ॑ ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tuje nas tane parvatāḥ santu svaitavo ye vasavo na vīrāḥ | panita āptyo yajataḥ sadā no vardhān naḥ śaṁsaṁ naryo abhiṣṭau ||

पद पाठ

तु॒जे। नः॒। तने॑। पर्व॑ताः। स॒न्तु॒। स्वऽए॑तवः। ये। वस॑वः। न। वी॒राः। प॒नि॒तः। आ॒प्त्यः। य॒ज॒तः। सदा॑। नः॒। वर्धा॑त्। नः॒। शंस॑म्। नर्यः॑। अ॒भिष्टौ॑ ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:41» मन्त्र:9 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (ये) जो (स्वैतवः) उत्तम गमनवाले (वसवः) पृथिवी आदि (वीराः) बुद्धि और शरीर के बल से युक्त जनों के (न) सदृश (तने) विस्तीर्ण (तुजे) दान में (वः) हम लोगों के लिये (पर्वताः) जल के देनेवाले मेघ और दाता जनों के सदृश (सन्तु) होवें और जो (अभिष्टौ) इष्ट की सिद्धि में (पनितः) प्रशंसित (आप्त्यः) यथार्थवक्ता जनों में उत्पन्न (यजतः) मिलने वा सत्कार करने योग्य जन (नः) हम लोगों की (सदा) सदा (वर्धात्) वृद्धि करे और जो (नर्य्यः) मनुष्यों में श्रेष्ठ (नः) हम लोगों को (शंसम्) प्रशंसा को प्राप्त करावें, उन सब का हम लोग सत्कार करें ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो जन वीरजनों के सदृश शत्रुओं के निवारण करने, मेघ के सदृश देनेवाले और वायु के सदृश वेगयुक्त विद्वान् हम लोगों की नित्य वृद्धि करें, उनकी हम लोग भी वृद्धि करें ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! ये स्वैतवो वसवो वीरा न तने तुजे नः पर्वता मेघा दातार इव सन्तु योऽभिष्टौ पनित आप्त्यो यजतो नः सदा वर्धाद्यो नर्य्यो नः शंसं प्रापयेत्तान् सर्वान् वयं सत्कुर्याम ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तुजे) दाने (नः) अस्मभ्यम् (तने) विस्तीर्णे (पर्वताः) जलप्रदा मेघा इव (सन्तु) (स्वैतवः) सुष्ठुगमनाः (ये) (वसवः) पृथिव्यादयः (न) इव (वीराः) प्रज्ञाशरीरबलयुक्ताः (पनितः) प्रशंसितः (आप्त्यः) आप्तेषु भवः (यजतः) सङ्गन्ता पूजनीयः (सदा) (नः) अस्मान् (वर्धात्) वर्धयेत् (नः) अस्मान् (शंसम्) प्रशंसाम् (नर्यः) नृषु साधुः (अभिष्टौ) इष्टसिद्धौ ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । ये वीरवच्छत्रुनिवारका मेघवद्दातारो वायुवद्वेगवन्तो विद्वांसोऽस्मान्नित्यं वर्धयेयुस्तान् वयमपि वर्धयेमहि ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वान वीराप्रमाणे शत्रू निवारक, मेघाप्रमाणे दाता, वायुप्रमाणे वेगवान असून नित्य वृद्धी करतात त्यांची आम्हीही वृद्धी करावी. ॥ ९ ॥